Shayad Zindagi Zyada Jeeli Hoti

आज बैठे हुए, तरंगो को सुनती, इन हवाओं मे लहराती, यादों से कहती हूँ, काश ज़िंदगी थोड़ी ज़्यादा जीली होती!
बचपन में जब बाहर आवाज़ हसी की आती, तब अगर नंगे पाव खेलने दौड़ती, तो शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
बारवी की परीक्षा अगर, कॉलेज के सेमेस्टर परिक्षाएँ की तरह दी होती, तो शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
अपने आस पास खोक्ली बातों के बदले, दोस्ती को पनाह दी होती, तो शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
मोहब्बत को दफ़नाने के बजाय, अगर बाटने की कोशिश की होती, तो शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
बेवजह झगडो में ना उलझती, जिनसे कुछ कहना था, वह कह डालती, तो शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
कल, आज और कल के चक्कर मे, काफ़ी चीज़ें अधूरी रह गयी, कई बातें अनकही रह गयी,
आज उन्हे फिरसे जताकर, हस्ती हूँ में, जैसे कुछ नही जानती, उन्न चीज़ो को याद करके, बैठी हुई में रोती, मन ही मन दोहराती,
के शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!
के शायद ज़िंदगी ज़्यादा जीली होती!